शापित अनिका: भाग ३

वो एक अंधेरी सी गुफा थी जिसमें सिर्फ एक मशाल जल रही थी। गुफा के बीचों- बीच एक पत्थर के चबूतरे पर स्वामी अच्युतानंद ध्यान- मुद्रा में बैठे मंद- मंद मुस्कुरा रहे थे। उनके पास ही नीचे जमीन पर ठाकुर विशम्भरनाथ और उनकी पत्नी अरूणिमा जी हाथ जोड़े बैठे थे।


"समय ने अपना खेल शुरू कर दिया है ठाकुर साहब।" स्वामी जी आंखें खोलते हुये बोले- "अब देखना ये है कि समय की धारा का प्रवाह किस ओर होता है।"


"हम कुछ समझे नहीं गुरूजी!" ठाकुर साहब चकराये से बोले।


"तुम्हारी पुत्री किशोरावस्था में प्रवेश कर चुकी है विशम्भरनाथ जी और साथ ही उसके जीवन में वो कारक भी आ चुका हू, जो या तो उस श्राप के अंत का कारक बनेगा या आपकी पुत्री के। अब किसका अंत होगा ये तो शिव ही जाने!" स्वामी जी बोले।


"परन्तु हमारे कुल गुरू महाराज ने तो कहा था कि इस श्राप को तोड़ने में आप हमारी सहायता करेंगें" अरूणिमा देवी ने प्रश्न किया- "तो फिर...."


"हम अपने स्तर पर प्रयास अवश्य करेंगें पुत्री...." स्वामी अच्युतानंद ने मुस्कुराते हुये कहा- "लेकिन हम तो कारक मात्र हैं, कर्ता तो शिव है। अगर उनकी कृपा रही तो शीघ्र ही आपका वंश इस श्राप से मुक्त होगा। परन्तु अब सबसे पहले आपकी पुत्री को इस श्राप से अवगत करवाना होगा क्यूंकि यदि वो ही इस श्राप से अनभिज्ञ रही तो श्राप तोड़ने का प्रयास ही व्यर्थ है।"


"जी गुरूजी!" अरूणिमा देवी ने कहा लेकिन अपने पति को सोचमग्न देखकर उनसे पूछा- "क्या हुआ जी! आप क्या सोच रहे है?"


"सोच रहा हूं कि वो हमारी बात पर यकीन करेगी भी या नहीं...." ठाकुर विशम्भरनाथ ने जवाब दिया।


"आप ऐसा क्यूं कह रहे हैं?" अरूणिमा देवी ने पति का जवाब सुन चौंककर पूछा।


"क्यूंकि वो आज के जमाने की एक साइंस पढ़ने वाली लड़की है। अभी फाइनल्स में है और बॉटनी से एम.एस.सी. करना चाहती है। कहीं उसे ये सब बातें दकियानूसी लगी तो?" ठाकुर साहब चिंतित स्वर में बोले।


"अपने कुल- देवता महादेव पर विश्वास रखिये ठाकुर साहब।"स्वामी जी ने मुस्कुराकर कहा- "वो स्वयं ज्ञान का स्त्रोत हैं। आपकी समस्या के निवारण हेतु आपको उचित ज्ञान प्रदान करेंगें। अब आपसे आपके ही निवास पर भेंट होगी" 


"जी गुरूजी!" कहते हुये ठाकुर साहब अपनी पत्नी अरूणिमा जी के साथ गुफा से निकले और अच्युतानंद महाराज फिर से ध्यानावस्था में चले गये


* * * 



आशुतोष जब घर पहुंचा तो दोपहर के बारह बज रहे थे। पूरा परिवार डायनिंग हॉल में बैठा लंच कर रहा था। सबके चौंकने से उसने अनुमान लगा लिया कि उसके आने के बारे में मिशा को छोड़कर कोई नहीं जानता।


"मां प्रणाम!" आशुतोष ने पैर छुये तो विमला देवी ने "खुश रहो" का आशीर्वाद दिया। इसके बाद उसने अपने पिता के पांव छुये।


"बाबूजी प्रणाम!"


"हां.... हां.... ठीक है।" मि. श्यामसिंह उसके आने से चकित थे- "क्या सीधे एअरपोर्ट से चले आ रहे हो!"


"नहीं तो.... मैं तो सुबह करीब साढ़े नौ बजे आ गया था।" आशुतोष सिड़ के बगल वाली कुर्सी पर बैठते हुये बोला।


"मिशा तुमने हमें बताया क्यूं नहीं?" विमला देवी ने मिशा से पूछा।


"जैसे उससे कोई फर्क पड़ने वाला था!" मिशा ने फीकी हंसी हंसते हुये कहा- "भाई ने तो आने का बताया ही रहा होगा आपको? लेकिन हां.... सौतेले बेटे का ध्यान किसे रहता है?"


"मिशा...."मि. श्यामसिंह चिल्लाये।


"कुछ गलत कहा हो तो सॉरी मॉम...." मिशा मुस्कुराकर बोली- "क्या करूं? आपकी ही बेटी हूं न तो मुंह से कड़वी बात निकल ही जाती है।"


"मैं तो सिर्फ इसलिये कह रही थी कि अगर तुम पहले बता देती तो इसके लिये भी खाना बनवा देते!" विमला देवी झिझकते हुये बोली।


"ओह.... आई एम सो सॉरी मम्मा.... मुझसे बड़ी भूल हुई जो पहले नहीं बताया। देखो न! अब तो धर्मसंकट आ गया। सौतेले बेटे को खिलाकर कोई आप अधपेट कैसे रह सकता है।" मिशा ने तंज कसा।


"अरे नहीं मां, वो मैं रित्विक से मिलने गया था घंटाघर.... तो वहीं खा लिया था। इसी चक्कर में तो देर हो गई।" आशुतोष ने मिशा को आंखे दिखाते हुये कहा- "आप लोग खाइये, मैं तब तक आराम करता हूं।" कहकर आशुतोष अपने कमरे की तरफ रवाना हुआ और बिस्तर पर निढ़ाल होकर गिर पड़ा। अगर और दिनों की बात होती तो उसकी मन फिर से भारी हो जाता लेकिन आज उसका पूरा ध्यान उस लड़की पर था। वो एकटक छत की तरफ देखता रहा, जहां उसे उस लड़की का मुस्कुराता चेहरा नजर आ रहा था। उसकी अवस्था उस ध्यानस्थ साधु की सी थी, जिसे ध्यान में साक्षात ईश्वर दिख रहे हो। न जाने कब तक वो उस लड़की के ख्यालों में खोया रहा। उसकी तंद्रा मिशा की आवाज से भंग हुई जो उसके कंधे को झकझोर रही थी।


"हं.... मिशा?" आशुतोष ने चौंककर कहा- "क्या हुआ!"


"कहां खोये हो? मुझे लगा फिर से कफ- सिरप की बोतल गटक लिये हो।" मिशा ने कातर नजरों से उसे देखते हुये कहा।


"अरे वो तो बस मजाक में कहा था।" आशुतोष मुस्कुराया- "वो छोड़! तू यहां क्या कर रही है?"


"कुछ नहीं बस खाना लेकर आई थी। मुझे पता था कि यही सीन होने वाला है इसीलिये मैंनें पहले ही तुम्हारे लिये बनाकर रख दिया था।" मिशा ने टेबल की ओर इशारा किया।


"मां को बता देती तो तेरा क्या बिगड़ जाता?" आशुतोष ने टेबल की ओर देखा जहां कांसे की थाली में राजमा- चावल और एक प्लेट में सलाद रखी थी। साथ में एक तांबे के लोटे में पानी भी था।


"वो तो मैं बस कैकयी का रियेक्शन देखना चाहती थी।" मिशा ने हंसकर कहा- "लेकिन उसे तुम्हारे भूखे रहने से क्या दिक्कत? बस उसका पेट भरा होना चाहिये।"


"लेकिन मुझे सच में भूख नहीं है मिशा! मैं रित्विक से मिलकर...."


"रित्विक दा अपने गांव गये हैं।" मिशा ने बात काटकर कहा तो आशुतोष ने गर्दन झुका ली। मिशा मुस्कुराकर फिल्मी स्टाइल में बोली- "ड्यूड़, मिशा के सामने झूठ बोलना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है।"


"यार मिशा, तू मुझे थोड़ा सा जहर लाकर दे दे लेकिन ये खाना खाने को मत बोल।" आशुतोष ने थूक गटकते हुये कहा तो मिशा ने उस पर मुक्कों की बारिश कर दी- "आशु के बच्चे! अब तुम्हें सिर्फ यही नहीं बल्कि नीचे का बचा हुआ खाना भी खाना पड़ेगा।"


"ओके.... ओके.... चल अब परे हट!" आशुतोष ने हंसते हुये कहा और कुर्सी पर जा बैठा। उसकी आंखे डबडबा सी गईं। आज इतने सालों बाद उसने निर्मल प्रेम का आस्वादन जो किया था।


"उम्म...."आशुतोष ने पहला कौर चबाते हुये कहा- "तू खाना ठीक ही बना लेती है। मुझे तो लगा टिकट कटेगी लेकिन सच में अच्छा बना है। हॉस्टल का खाना खा- खाकर मैं तो घर के खाने का स्वाद ही भूल गया था। लेकिन तूने सीखा कहां?"


"मेरी दोस्त ने सिखाया। वो तो इससे भी अच्छा बनाती है।" मिशा चहकते हुये बोली- "ड्यूड़ एक काम करो.... शादी कर लो फिर रोज घर का खाना खाने को मिलेगा।"


शादी का नाम सुनते ही आशुतोष के गले में कौर फंस गया। खांसते- खांसते बोला- "अरे तू भी कहां की बात कहां ले जाती है? इस शक्ल को कौन सी लड़की पसंद करेगी?"


"क्यूं? तुममे क्या खराबी है? इतने बड़े एम्पायर के वारिस हो, डॉक्टरी में गोल्ड- मेडलिस्ट हो। कैरैक्टर भी साफ है और दिखने में भी ठीक ठाक ही हो। बाकी लड़की को क्या चाहिये।" मिशा जैसे जिद पर अड़ सी गई- "अगर तुम्हें मंजूर हो तो अपनी कुछ फ्रेंड्स से मिलवा देती हूं। किसी को भी पसंद कर लेना।


"तेरा तो हो गया है दिमाग खराब।" आशुतोष चिढ़ते हुये बोला- "अभी मेरी उम्र ही क्या है यार? बमुश्किल चौबीस का तो हूं और तेरी सारी फ्रेंडस तो बच्चियां होंगी मेरे सामने। अब चुप बैठ और खाने दे, वरना मैं उठकर चला जाऊंगा।" 


"ओके ड्यूड़.... एज यू विश। पापा से ही बात करनी पड़ेगी।" कहकर मिशा रूम से चली गई तो आशुतोष खाते- खाते फिर उसी स्कूटी वाली के ख्यालों में खो गया। उसके मन में ख्याल आने लगे कि कैसा हो अगर उसकी शादी उसी लड़की से हो जाये?



* * * 


जिस प्रकार हिमालय के क्षेत्र को तपस्थली माना गया है, ठीक उसी प्रकार उत्तराखंड को देवस्थली भी कहते हैं। पंच- बद्री, पंच- केदार और पांच प्रयागों वाले इस क्षेत्र को देवभूमि माना जाता है। पाश्चात्य शैली से लड़ते हुये ये क्षेत्र अब भी सनातन धर्म की परम्परा और संस्कृति को सहेजे हुये हैं। आज भी आपको यहां पब-डिस्को से ज्यादा मंदिर और आश्रम देखनें को मिलेंगें। इन्हीं कुछ धार्मिक शहरों में से एक है- ऋषिकेश।


इस पावन नगरी के बारे में प्रचलित है कि जब प्रजापति दक्ष के यज्ञ में माता सती ने आत्मदाह किया था, तब भगवान शिव ने क्रोध में अपनी जटा से कुछ केश तोड़कर धरती पर फेंकें थे, जिनसे रूद्रावतार वीरभद्र उत्पन्न हुये। मान्यता है कि जिस स्थान पर वो केश गिरे थे, उसी स्थान पर ऋषिकेश बसा है। इसी स्थान पर वीरभद्र प्रकट हुये, जिन्होनें कनखल जाकर सभी देवताओं को पराजित कर दक्ष का सिरोच्छेदन किया था।


सुरनदी गंगा के पावन तट पर बसा यह क्षेत्र चिरकाल से साधुओं की तपस्थली रहा है। इसी ऋषिकेश में मां गंगा के पावन तट पर स्वामी शिव दास जी का आश्रम है। स्वामी शिवदास जी इसी आश्रम में रहकर अपने शिष्यों को तंत्र, मंत्र और यंत्र- शास्त्र की शिक्षा देते हैं, तथा भक्तों की पीड़ा का समाधान करने का प्रयत्न भी करते हैं।


शाम का समय है। मंद- मंद चलने वाली शीतल पवन सूर्य- उष्मा से पीड़ित जीवों का संताप हर रही है। अस्त होते सूर्य की किरणें जब गंगा के पावन जल को स्पर्श करती हैं तो लगता है मानो स्वर्ण- नदी बह रही हो। इस मनोहारी दृश्य को देखकर भी मि. श्यामसिंह का चित्त शांत नहीं था। वो बड़ी व्यग्रता से गंगा के तट पर टहल रहे थे। तभी एक युवा साधु उनके पास आकर बोला- "गुरूजी की पूजा समाप्त हो चुकी है। उन्होनें आपको बुलाया है।"


मि. श्यामसिंह तेजी से उस साधु के साथ हो लिये। वो उन्हें सीधे बाग में ले गया, जहां स्वामी शिवदास झूले में बैठे मुस्कुराते हुये उनका इंतजार कर रहे थे।


"आओ.... आओ श्यामसिंह!" स्वामी जी मुस्कुराते हुये झूले से उतरे- "क्षमा करना कि आपको प्रतीक्षा करनी पड़ी।"


"नहीं स्वामी जी! मुझे कोई कष्ट नहीं हुआ।" श्यामसिंह ने पांव छूते हुये कहा।


"मित्र पांव नहीं छूते श्यामसिंह! और मैं तुम्हें हुये मानसिक कष्ट के लिये क्षमा मांग रहा हूं।" शिवदास जी ने श्यामसिंह को पांव छूने से रोका और गले से लगा लिया। कुछ क्षण के आलिंगन के बाद उन्होनें श्यामसिंह को अपने साथ झूले में बैठाया और शिष्य को एकांत का संकेत किया।


"स्वामी! अब मुझसे और नहीं सहा जाता। आखिरकार वो मेरा बेटा है। कब तक मैं उसके दिल को दुखाता रहूंगा?" मि. श्यामसिंह करूण स्वर में बोले- "जबसे पुष्पा गई है, तब से गले लगाना तो दूर मैंनें उससे ठीक से बात भी नहीं की है। विमला भी मेरे कहने पर उसके साथ अच्छा बर्ताव नहीं करती और अब तो आलम ये है कि अपने इस बर्ताव के चलते हम अपने बाकी बच्चों की नजरों में भी गिर चुके हैं।"


"स्वर्ण को कुंदन बनाने के लिये अग्नि में तपाना ही पड़ता है श्यामसिंह! और तुम ये सब उसके भले के लिये ही तो कर रहे हो।" स्वामी जी के अधरों पर मुस्कान थी।


"लेकिन एक हद से ज्यादा खींचने पर लचीले से लचीला धागा भी टूट जाता है। मुझे हरदम ये ड़र लगा रहता है कि कहीं मैं उसे हमेशा के लिये न खो दूं।"


"बिना ईश्वर की इच्छा के तो इस संसार में पत्ता भी नहीं हिलता श्यामसिंह...." स्वामी जी का स्वर शांत किंतु दृढ़ था- "और फिर तुम्हें उसका जीवन चाहिये या उसका प्रेम?"


"ये कैसा प्रश्न है स्वामी?" श्यामसिंह अचकचाये।


"आशुतोष को जिस चुनौती का सामना करना है, उसके लिये उसके हृदय का वज्र होना आवश्यक है। तुम चिंता मत करो, ईश्वर सब कुशल करेंगें।" स्वामी जी ने आकाश की ओर देखकर कहा।


"लेकिन कब तक? अगले साल आशुतोष पच्चीस साल का हो जायेगा और अगर उस शाप का तोड़ नहीं हुआ तो...."


"ईश्वर की लीला आजतक कोई समझ पाया है, दो हम- तुम समझ पायें? जिस श्राप का तुम प्रतिकार करना चाहते हो, तुम्हें तो उस श्राप का ज्ञान भी नहीं है।"/स्वामी जी हंसकर बोले- "परन्तु समय ने अपना खेल आरम्भ कर दिया है और शीघ्र ही आशुतोष के जीवन में उस श्राप के प्रभाव दिखने शुरू हो जायेंगें। जैसे ही वो प्रभाव स्पष्ट हों, समझ लेना कि श्राप का निवारण होने वाला है।"


श्यामसिंह को कुछ भी समझ नहीं आया। चकराये से बोले- "मतलब?"


"हर सिक्के के दो पहलू होतें हैं श्यामसिंह। ये श्राप पिछले हजार वर्षों से तुम्हारे परिवार के साथ है, लेकिन क्या तुम्हे पता है कि मात्र तुम्हारा परिवार ही नहीं है जो इस श्राप को भुगत रहा है।"


"मतलब कोई और भी...."


"वर्षों पहले ये श्राप दो परिवारों को मिला था लेकिन समय बीतने के साथ ही सारा अतीत अंधकार की गर्त में जा पहुंचा। परन्तु अब समय आ गया है उस श्राप की समाप्ति का।" स्वामी जी बोले- "तुम दिल छोटा मत करो और ईश्वर पर विश्वास रखो। शीघ्र ही पूरा अतीत सामने आने वाला है। अब तुम निश्चिंत होकर अपने निवास को लौट जाओ।"


"ठीक है।" कहकर अनमने भाव से मि. श्यामसिंह थके- मांदे कदमों से आश्रम के बाहर निकल गये।


"हे भोलेनाथ! अपने पूर्वजों के कुकृत्यों का दण्ड़ ये दोनों परिवार पिछले हजार वर्षों से भोग रहे हैं। अब तो इन्हें क्षमा कर दो प्रभु!" शिवदास जी ने आकाश की ओर देखकर कहा और एक गहरी नि:श्वास छोड़कर मंदिर की ओर बढ़ गये।


* * * 



अगली सुबह सूर्योदय का समय था। सूरज बस निकलने ही वाला था। स्वामी शिवदास अपने कुछ प्रमुख शिष्यों के साथ स्नान कर गंगातट पर आये ही थे कि उन्होनें स्वामी अच्युतानंद को अपनी ओर आते देखा।


"आइये.... आइये बंधुवर!" स्वामी शिवदास ने उत्साहपूर्वक अच्युतानंद जी का स्वागत किया, जबकि उनके शिष्यों ने अच्युतानंद जी को प्रणाम किया।


"प्रणाम शिवदास जी!" स्वामी अच्युतानंद ने स्वामी शिवदास को प्रणाम किया और उनके शिष्यों को "आयुष्मान"  होने का आशीर्वाद देकर कहा- "मुझे आपसे अत्यंत महत्वपूर्ण चर्चा करनी है शिवदास जी।"


स्वामी शिवदास ने अपने शिष्यों को आश्रम की तरफ बढ़ने का संकेत किया और स्वयं स्वामी अच्युतानंद जी को साथ लेकर गंगातट पर टहलने लगे।


"अब कहिये अच्युतानंद जी! किस बात ने आप जैसे महाज्ञानी पंडित को इतना व्यथित कर दिया है?" अपने शिष्यों से उचित दूरी पर जाकर शिवदास जी ने पूछा।


"आप तो भविष्य देख सकते हैं शिवदास जी!"


"हां, परन्तु किसी के मन की बात भला मैं क्या जानू? आप नि:संकोच होकर स्पष्ट रूप से कहिये।" शिवदास जी मुस्कुराये।


"आप जानते हैं शिवदास जी कि मेरे व्यथित होने का कारण क्या है? अघोरा महाशक्तिशाली हो चुका है और जब से आशुतोष और अनिका एक- दूसरे के सम्मुख हुये हैं, तब से उनके और खासकर आशुतोष के जीवन पर संकट खड़ा हो गया है।" अच्युतानंद जी व्यग्र भाव से बोले।


"उनके जीवन पर तो उनके जन्म से ही महासंकट है अच्युतानंद जी! यह बात जानते हुये भी आपको आश्चर्य हो रहा है?"


"उससे अधिक आश्चर्य तो मुझे आपकी निश्चिंतता पर हो रहा है।" अच्युतानंद जी आश्चर्यपूर्वक बोले- "आप जानते हैं न कि यदि शीघ्र ही इस श्राप का अंत नहीं हुआ तो इस पृथ्वी पर महासंकट खड़ा हो जायेगा।"


"हां, और इसीलिये तो हम और आप इतने वर्षों से अनिका और आशुतोष की सुरक्षा करते आ रहें हैं और आशुतोष को भी हमने वज्र की भांति दृढ़ बनाने का प्रयास किया है। अब अघोरा के प्रकोप का शीघ्र ही अंत निश्चित है। वैसे भी अघोरा अभी तक भी स्वामी महेन्द्रनाथ के बंधन में हैं इसलिये आप चिंता मत कीजिये।"

"चिंता कैसे न करूं शिवदास जी?अघोरा बंधन में हैं उसकी शक्तियां नहीं।" अच्युतानंद जी चिंतित स्वर में बोले- "आपको ज्ञात है कल जब हमनें आशुतोष की कुंडली का अध्ययन किया तो पाया कि उसकी कुंडली में अकाल मृत्यु का योग बन रहा है और यदि आशुतोष का अहित हुआ तो अघोरा अपने ध्येय में सफल हो जायेगा और तब सारी पृथ्वी पर विनाश ही विनाश होगा।"


"आप कबसे इतने अधीर होने लगे अच्युतानंद जी? अपनी चिंताओं को ईश्वर पर अर्पण कर मात्र अपना कर्म कीजिये। उसकी इच्छा के बिना तो संसार में पत्ता भी नहीं हिलता तो फिर पृथ्वी का विनाश कैसे संभव है?"


"परन्तु मुझे अपने कर्तव्य का बोध ही तो नहीं हो रहा है शिवदास जी!" अच्युतानंद जी व्याकुल होकर बोले- "क्या ये उचित नहीं होगा कि आशुतोष और अनिका को उनकी तथा अघोरा की वास्तविकता से परिचित करवा दिया जाए?"


"नहीं अच्युतानंद जी! जब तक अनिका के मन में भी आशुतोष के लिये प्रेम- बीज अंकुरित नहीं हो जाता, तब तक...."


"तब तक बहुत देर हो जायेगी शिवदास जी!" अच्युतानंद जी अधीर होकर बोले- "यदि ये हुआ तो अघोरा का क्रोध प्रचंड रूप धारण कर लेगा और आप भी जानते हैं कि हमारी सम्मिलित शक्तियां भी उसका सामना करने के लिये अपर्याप्त है।"


"तो आप क्या चाहते हैं?"


"मेरे विचार में तो उन दोनों को इस श्राप से अवगत करवा देना ही उचित है।"


"परन्तु यदि श्राप से अवगत होने पर अनिका ने आशुतोष का प्रेम- निवेदन अस्वीकार कर दिया तो?" शिवदास जी ने शंका प्रकट की।


"उन दोनों का मिलन साक्षात महाशिव की इच्छा है और यदि अनिका आशुतोष के प्रेम को ठुकरा भी देती है, तो भी इस श्राप के निराकरण और अघोरा के अंत के लिये उन दोनों को एक साथ आना ही पड़ेगा। यही उनकी नियति है।"


"नियति ने भविष्य के लिये क्या चुना है, ये हम कैसे जान सकते हैं।" शिवदास जी मुस्कुराये- "परन्तु यदि आप ऐसा चाहते हैं तो ऐसा ही कीजिये। मैं भी शीघ्र ही आशुतोष को इस श्राप से अवगत करवा दूंगा।"


"उचित है। तो मैं भवानीपुर प्रस्थान की तैयारी करता हूं।" कहकर अच्युतानंद जी तेजी से एक ओर बढ़ गये।



* * *


क्रमशः


---- अव्यक्त





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2 Comments

🤫

16-Jul-2021 09:58 AM

रोमांच से भरपूर एक अच्छी कहानी,कमाल का ताना बाना बुना है आपने ... अगले भाग की प्रतीक्षा में

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